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धूप का टुकड़ा उतरा सूने आँगन में / अज़ीज़ आज़ाद

धूप का टुकड़ा उतरा सूने आँगन में
कुछ तो आया तन्हाई के दामन में

चट्टानों में हरी कोंपलें फूट पड़ीं
क्यूँ मुर्झाए फूल हमारे गुलशन में

सारे परिन्दे गुमसुम हो कर बैठ गए
पाँखें भी अबके भीगी न सावन में

वो क़िस्से तो सारे झूठे लगते हैं
जो दादी से हमने सुने थे बचपन में

अपनी ख़ुशबू से ही वो अनजाना है
पागल होकर भाग रहा है बन-बन में

इतने आए लोग तुझे सच समझाने
फिर भी क्यूँ ‘आज़ाद’ पड़ा है उलझन में