भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नख सिख - 5 / प्रेमघन
Kavita Kosh से
खम्भ खरे कदली के जुरे जुग,
जाहि चितै चित जात लुभाई।
हेम पतौअन सों लदि कै,
लतिका इक फैलि रही छबि छाई॥
देखियै तो घन प्रेम नहीं पैं,
खिले जुग कंज प्रसून सुहाई।
हैं फल बिम्ब मैं दाड़िम बीज,
दई यह कैसी अपूरबताई॥