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नज़र आग उगले, जुबाँ आग उगले / फूलचन्द गुप्ता
Kavita Kosh से
नज़र आग उगले, जुबाँ आग उगले
समय आ गया हर जवाँ आग उगले
ये सड़कें, ये गलियाँ, ये कूचे, ये कोने
कहें जिसको जन्नत मकाँ आग उगले
ये सरकार, इसकी करामात कैसी
नदी आग उगले, कुआँ आग उगले
कहाँ पर सुकूँ से रुकूँ चन्द लम्हा ?
जमीं पर शरर, आसमाँ आग उगले
ये झूठी तरक्की, ये दौलत – परस्ती
लगातार अहले – जहाँ आग उगले