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नज़र उठाई और अपना असीर कर डाला / कृश्न कुमार 'तूर'

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नज़र उठाई और अपना असीर कर डाला
इस एक ज़र्रे को माहे-मुनीर कर डाला

तराश दी मेरे दिल पर किसी चराग़ की लौ
ये क्या किया मुझे अपनी नज़ीर कर डाला

ख़ज़ाना ग़म का सँभाले नहीं सँभलता अब
तुम्हारे इश्क़ ने कितना अमीर कर डाला

न जाने कौन-सा दम फूँका गुल-ज़मीनों ने
कि एक ख़ाक को ख़ुश्बू-सफ़ीर कर डाला

मेरी अना ने नमू याब मुझको रखना था
सो अर्ज़े आब को मिट्टी लकीर कर डाला

ये मेरी आहे रसा ने निकल के होंठों से
मुझे ख़ुद अपनी नज़र में हक़ीर कर डाला

मैं उसको ढूँढूँ कि ‘तूर’ अपना-आप पहचानूँ
उस एक वस्ल ने मुझको फ़क़ीर कर डाला