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नदी और माँ / दिनेश कुमार शुक्ल

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त्रिभुवन में घूम रही धरती
धरती के सीने पर कोसी
मटमैले फटे दुपट्टे-सी
बहते-बहते उड़ती जाती
है अन्तरिक्ष में फर-फर-फर

इस दुनिया में जैसे सबकी
अपनी-अपनी माता होती
वैसे ही सबकी अपनी-अपनी
एक नदी भी होती है

जो दूर सहरसा से आकर
मण्डी-डबवाली में बोरे
ढोता है उसकी आँखों में
बसता त्रिलोक का अन्तरिक्ष
बसती त्रिकाल की यादें हैं

यादों में माँ की मटमैली
धोती-सी उड़ती कोसी है