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नदी / जयप्रकाश मानस
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नदी
हमारे सपनों में गुनगुनाती है अंतहीन लोगगीत
गीतों में गमकते हैं
कछारी माटी वाले हमारे सपने
पहुँचाती है पुरखों तक
अंजुरी भर कुशलक्षेम
दोने भर रोशनी
हमारी बहू-बेटियों की मनौतियों की
निर्मल चिट्ठी के लिए
जनम-जनम बनती है डाकिया
पूछती फिरती है सही-सही पता
बाधाओं के पहाड़ लाँघकर
नदी अन्न के भीतर पैठकर पहुँचती है
हमारे जीवन में
अथाह उर्जा के साथ
सभी के काम पर गुम हो जाने के बाद भी
बच्चों के आसपास रहती है कोई
तो
वह नदी ही है माँ की तरह
हमारे बच्चे अनाथ हुए बिना
रचते रहेंगे दोनों तटों पर गाँव
गाँव की दुनिया में मेले
जब तक उमड़ती रहेगी नदी
उनमें सतत