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नफ़रत की ये आग बुझाने आ जाओ / अजय अज्ञात
Kavita Kosh से
नफ़रत की ये आग बुझाने आ जाओ
उल्फ़त का इक दीप जलाने आ जाओ
ग़म देने या खुशियों का पैग़ाम लिए
या फिर कोई और बहाने आ जाओ
हानि धर्म की हर सू होती जाती है
अब तो ‘माधव' धर्म बचाने आ जाओ
विष के साग़र खूब पिये हैं ‘मीरा' ने
अब तो ‘कान्हा' रूप दिखाने आ जाओ
तुम जानो ये कौन क़ियामत आई है
मुझ को मेरे ‘राम' बचाने आ जाओ