नभ के तारे की क्या आशा / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'
जब घर ही का दीप बुझ गया, नभ के तारे की क्या आशा ?
डूब गई जब जीवन-नौका, दूर किनारे की क्या आशा ?
बिछुड़ सदा को गया, रहा जो हरदम इतना बड़ा समीपी,
कब-कब सुनी गगन ने तृष्णा में जलते चातक की पी-पी !
बिछुड़ सदा को गया, रहा जो अन्तर में आलोक जगाए,
सूख सदा को गया, सुरभि में जिसके प्राण घिरे, मण्डराए,
मेरे ऊपर सिमटी आतीं घने अन्धेरे की दीवारें,
शेष निराशा है काजल की घुटते मन की मूक पुकारें,
अपना ही अपना न हुआ, आकाश-विहारी की क्या आशा !
जब मन ही का फूल मर गया, क्या आकाश-कुसुम की आशा !
कैसे देगा साथ, चमकता है जो ऊपर, बाहर,
कैसे प्यार करेगा मुझको, जो सुन्दरता से भी सुन्दर !
कैसे ताप करेगा वो, जो आवाज़ नहीं दिल की सुन पाता,
कैसे ज्योति भरेगा, अपना स्नेह न जो नीचे ढुलकाता !
कैसे अपने देश बसेगा, जो सपनों में बना विदेशी,
कैसे स्वप्न-लोक से नीचे उतरेगा किरणों का वेशी !
जब अपना ही गीत मर गया, नभ के गीतों की क्या आशा !
जब अपना ही मीत हर गया, नभ के मीतों की क्या आशा !
सचमुच बड़े छली हैं, ये तो केवल प्यास बाँटना जानें,
नए नशीले चान्द भला ये कब धरती का मन पहचानें !
इनकी चितवन में मदिरा है, इनके प्राण बड़े निर्मोही,
ये केवल देखा करते हैं, अपनी छवि को, अपने कोही !
इस आकाशी ज्योति-शिखा का कौन भरोसा, कौन सहारा
जब घर ही का दीप मर गया असमय असफलता का मारा !
जब घर ही का दीप बुझ गया, नभ के तारे की क्या आशा ?
डूब गई जब जीवन-नौका, दूर किनारे की क्या आशा ?