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नया अनहद (कविता) / दिनेश कुमार शुक्ल

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मन में एक पेड़ छतनार
तँह पै पंछी बसैं हजार
कोयल कौआ और कठफोर
तोता मैना हंस चकोर
बगुला आवै पंख पसार
लावैं पढ़िना मछरी मार
पेंढुकी करैं गुटुरगूँ प्यार
हारिल लावैं लकड़ी चार
तँह पै लटकै एक भुजंग
झूमै पियै हवा की भंग
लह-लह लहरें भरै अनंग
नीचे नाचै चपल कुरंग

फूलैं कँवल भोर भिनुसार
देहरी लाघैं गुँइयाँ चार
आगे धरैं चरन सुकुमार
चहुँ दिसि टूटै बज्र केंवार

टुक-टुक देखैं मोर चकोर
फिर तो बना साँप की डोर
चुनकर मोटी वाली डाल
उसमें अपना झूला डाल
मिलिकै झूलैं गुँइयाँ चार
गावैं कोमल मेघ मल्हार
उनके मन में सिन्धु अपार
जिसमें गरज रहा है ज्वार

उनका मन निरमल अक्कास
तँह पै चलें पवन उन्चास
आया सावन का त्योहार
आँखें हरी-भरी रतनार

उन आँखों में बसती रात
उसमें तारों की बरसात
उनका मन है अपरम्पार
उसमें झरते फूल हजार
उसमें बहे बसन्त बयार
उसमें पूरा रितु संहार

तँह पै झरै अगम की धार
सरसइ माया का संसार
दह-दह दहकै अगिन अपार
तँह पै खुले केस एक नार
करती बिजली का सिंगार
नाचै लोक लाज को त्याग
चंदन तन में लिपटे नाग

उसके मन में गहरी हूक
जिसमें बड़वानल की भूख
उसमें नदियाँ जावैं सूख
उसमें सागर जावैं सूख

झूलैं सावन भादों मास
झूलैं धरती औ अक्कास
नभ से झरती अमरित बूँद
गुँइयाँ लेती आँखें मूँद

फिर तो लगा जोर झकझोर
पीगें भरती नभ की ओर
तन में खिलें बकुल के फूल
गुँइयाँ जाती रह-रह झूल
उनके मन में झरने सात
झरते रहते सारी रात
लाते सपनों की सौगात
लाते परियों की बारात
परियाँ लाती हैं बरसात
अमरित बरस रहा दिन रात
फिर तो हरियाली का रंग
जीवन भरता नई तरंग

जगता गहरा जंगल एक
मन में लहरा जंगल एक
जिसमें झूमैं पेड़ हजार

अम्बा निम्बा औ कचनार
उनमें एक पेड़ छतनार
जिसमें पंछी बसैं हजार
तँह पै लटकै एक भुजंग
नीचे नाचइ चपल कुरंग

तब फिर आवैं गुँइयाँ चार
मिल के गावैं मेघ मल्हार
उन गुँइयों में गुँइयाँ चार
उनमें एक पेड़ छतनार
फिर उसमें भी गुँइयाँ चार

पुनि-पुनि एक पेड़ छतनार
पुनि-पुनि आवैं गुँइयाँ चार
खेलइ जीवन अपरम्पार
विकसै भरै सकल संसार

मुकुति का खिलइ सहस-दल कँवल
हँसइ जीवन नित नूतन धवल
बहइ सर-सर-सर झंझा-प्रबल
कि धँसकइ बड़ेन-बड़ेन कै महल

जब भी आवैं मुँइयाँ चार
मिलि के गावैं मेघ मल्हार
जग से मिटता अत्याचार
राजा करता हाहाकार
छाती पीटै सौ-सौ बार
रोवैं मंत्री दाढ़ी जार
छिपता फिरता साहूकार
फाँकै धूरि राज दरबार
जब भी आवैं गुँइयाँ चार
खोलैं सकल मुक्ति के द्वार
टूटैं चहुँ दिसि बज्र किंवार
जब भी आवैं गुँइयाँ चार