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नयी आस में / यतींद्रनाथ राही

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और धरो धीर ज़रा
एक नयी आस में!

हो रहा है और एक वर्श
लो व्यतीत यह
कौन हारता रहा है
कौन गया जीत वह
आँधियाँ उठीं तो कहीं
पात-पात झर गए
राह के बबूल खड़े
कंटकों से भर गए
हम,
उलझ के रह गए हैं
पंथ की तलाश में!

मंज़िलों ने द्वार-द्वार
दीप नए धर दिये
स्वास्तिकाएँ
कीर्तिगान आरती लिये
स्वर उठे,
दिषा-दिषा से
धन्य है! बढ़े चलो!!
पर्वतों के शीश पर
चढ़े चलो! चढ़े चलो!!
सामने प्रशस्त पंथ
है नए प्रकाश में!

है पवित्र यज्ञ
इन अनीतियों का ध्वंस हो
भ्रष्टता का
अब न कहीं
शेष कोई वंश हो
हे पवित्र भूमि यह
पवित्र कर्म के लिये
समत्व-बन्धु भाव के
पवित्र धर्म के लिये
हो हमारा योगदान
इस महाप्रयास में!