भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नहीं एक दिल की लगी छूटती है / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
नहीं एक दिल की लगी छूटती है
भले ही भरी ज़िन्दगी छूटती है
वे घबराके यों मेरी बाँहों में आये
पहाड़ों से जैसे नदी छूटती है
नहीं है कोई और तो साथ मेरे
ये किसकी हँसी पर हँसी छूटती है
पहुँच आज किन घाटियों में गया मैं
यहाँ पर तो हर दोस्ती छूटती है
उमर सर झुकाए चली जा रही है
उमंगो की आवारगी छूटती है
हरेक साध ऐसे निकलती है मन से
कि जैसे कोई फुलझड़ी छूटती है
वही हैं सभी प्यार की रंगरलियाँ
ये दुनिया भरी की भरी छूटती है
सवेरे-सवेरे गए छोड़कर वे
नहीं मन से अब भैरवी छूटती है
गुलाब! आपका दिल पिरोना था जिसमें
वही एक उनसे लड़ी छूटती है