नायक वर्णन / रस प्रबोध / रसलीन
नायक वर्णन
कही नायिका कहत हौं अब नायक रसलीन।
आलंबन मैं दसरो जेहि कवि कहत प्रबीन॥514॥
नायक लक्षण
उपजै जेहि नर निरखि कै नारिन हिय रति भाय...।
ताही को नायक कहत....जो... प्रबीन कवि राय॥515॥
नायक-गुण कथन
धरे रूप गुन धन मनी सबल अमल रसखानि।
दानी धीर गंभीर तें नायक सागर जानि॥516॥
नायक उदाहरण
इंद्र रूप गुन ग्यान अरु रवि... तप सागर... दान।
काम कला धरि औतरे सो तुव होइ समान॥517॥
सुकिया परकीया पतिहि पति उपपति है नाम।
सामान्या मित्रहि कहैं बैसुक कवि अभिराम॥518॥
पति का उदाहरण
जिनि चाही कुल कानि तिनि धरी कानि यह ल्याइ।
पति नीको नहि पाइये बिनु पति नीके पाइ॥519॥
जब ते लालन रमनि को गबनु लै आये संग।
तब ते सिव लौं आपनो करि राखी अरधंग॥520॥
पति के चार भेद
इक तिय रति अनुकूल है दच्छिन सील समान।
सठ कपटी मिठ बोलनो धृष्ट जो ढीठ निदान॥521॥
अनुकूल-उदाहरण
नये बसन जब हौं सजौ तब पिय भरम लजाहिं।
बिनु परुषे धुनि बचन के हेरि सकत है नाहिं॥522॥
पातन लै पग तल धरत करत सीस पट छाहिं।
यहि बिधि पिय प्यारी लिये बिहरत उपबन मांहि॥523॥
दक्षिण-उदाहरण
सागर दच्छिन दुहन की सम बरनत हैं प्रीति।
वह नदियन यह तियन सों मिलत एक ही रीति॥524॥
सजि सिँगार आई तिया तनु पिय दीप दुराइ।
बोल्यो हँसि हँसि निज करन ल्यावैं दिया जराइ॥525॥
यौं बनितन पिय बात सो अति आनद सरसाँत।
ज्यो बेलिन सुख होत है सुनि बसंत की बत॥526॥
चहुँ दिसि फेरत हैं बदन यौं रचि रास अनूप।
मनहु तियन के हेत पिय धरîौ चतुरमुख रूप॥527॥
शठ-उदाहरण
हेरि हेरि मुख फेरि कत तानत भौंह निदान।
बानन बधि कोऊ नहीं राखो चढ़ी कमान॥528॥
रहत टूटि कै बाल सों दृग दुख देत बनाइ।
ढूढ़ि रहेहूँ बाल कँह नैनन अधिक सोहाइ॥529॥
धृष्ठ उदाहरण
क्वाहि गयो ही आपु ही मोरि रिसौहैं खाइ।
आज सीस जावक लिये फिर लोटत है पाइ॥530॥
पिय सौतिन के नेह मैं घने सने हैं नैन।
याते पानिप लाज को केहू बिधि ठहरै न॥531॥
अनुकूलादि भेद में
वैसिका से भी उपपति हो सकने का कथन
अनुकुलादिक ये चतुर भेद जो पति के आहिं।
उपपति बैसक बीच हुँ वुधि बल सो ठहराहि॥532॥
उपपति का उदाहरण
सुख बाधन के मिलन की केहि बिधि बरनै कोइ।
चोरी को गुरु विदित यह निपट स्वाद कौ होइ॥533॥
बंसी टेरी आइ हरि तिय देखन के चाइ।
खिरकी खोलतही गिरी कछु फिरकी सी खाइ॥534॥
यह विचित्र तिय की कथा कहिये काहि सुनाइ।
मो घट आगि लगाय कै घट लै जल को जाइ॥535॥
आयी वह पानिप भरी रमनो आजु अन्हान।
जिहि बूड़नि निकसनि लखै निकसत बूड़त प्रान॥536॥
उपपति
त्रिबिध भेद
उपपति तीनि प्रकार पुनि गूढ़ मूढ़ आरूढ़।
तिनको यहि बिधि आनि कै बरनत है मति गूढ़॥537॥
गूढ़-लक्षण
परतिय सों मिलि नेह जो दुरये रहे बनाइ।
दिन दिन करहि विनोद अति सोइ गूढ़ कहि जाइ॥538॥
उदाहरण
पिय निज तिय हिय बसत यौं दुरये परतिय नेह।
मधुप मालती छकति ज्यौं करति कमल मैं गेह॥539॥
मूढ़-लक्षण
पर नारी के नेह को कहि निज धन के पास।
फिरि धन से रूसे भरै हिय मौं मूढ़ उसाँस॥540॥
उदाहरण
पर तिय हित निज नारि सों यौं कहि पिय पछिताइ।
कुमति चोर ज्यौं आपुनी चोरी देत बताइ॥541॥
आरूढ़-लक्षण
सदा पराये गेह जो पर नारी हित जाइ।
बंधनता उनकौ सहै यह आरूढ़ सुभाइ॥542॥
उदाहरण
कुलटनि के सँग पकरि कै मारी बाँधि अभीति।
तउ छूटै पर कहत हैं भई हमारी जीति॥543॥
बैसिक का उदाहरण
सुबरनबरनी द्वार पै बैठी पान चबाइ।
ऐंठी सी अखियनि चितै जिय मैं पैठत जाइ॥544॥
लाल अधर हीरा रदन जेहि सुबरन तन साथ।
दीजै केहि धन लाइये कीजे जेहि धन हाथ॥545॥
कौन जतन करि राखिये ताको नित हिय लाइ।
अष्टापद सो लेत कर जाकै विय पद जाइ॥546॥
बैसिक दो भेद
बैसिक है पुनि उभै बिधि प्रथम जानि अनुरत्त।
ताही को पुनि जानिये भेद दूसरो मत्त॥547॥
अनुरक्त-लक्षण
जोइ जो मन बच कर्म सो गनिका ही सो लीन।
ताही सो अनुरक्त कहि भाषत है परबीन॥548॥
उदाहरण
था मन मैं अब कौन बिधि दूजी आनि समाइ।
बार बिलासनि के रह्यौ सदर बिलासिनि छाइ॥549॥
मत्त-वर्णन
दूजौ बैसिक मत्त है यह बरनत बुधिवंत।
सोइ तीनि बिधि काम मत सुरा मत्त धन मत्त॥550॥
काममत्त-लक्षण
फिरत रहत नित काम बस कहूँ न नैकु अघात।
दिन निज घर निसि पर घरहिं बारि नारि घरि प्रात॥551॥
सुरामत्त-लक्षण
चंपक बरनि सुबास तनि निज धन कौ न सुहाइ।
बारबधुन के नित फिरे मदै पियन की चाइ॥552॥
धन मत्त-उदाहरण
रूप गुनन मैं आगरी नगर नागरी ल्याइ।
बस के बल इन छुद्र यह बस कर लाइ बनाइ॥553॥
नायक-त्रिबिध भेद
प्रकृत गुण के अनुसार
पति उपपति बैसिक तिहूँ उत्तमादि जिय जानि।
ग्रंथन को मतु देखि के बरनत हैं कवि आनि॥554॥
उत्तमादि-लक्षण
उत्तिम मनुहारिन करै मान न मानै आनि।
मध्यम सम ई अधम मिलि अरथी निलज निदान॥555॥
उत्तम नायक-उदाहरण
काजर दीने अरुनता भई बाल दृग मांहि।
समुझि ललाई मान की बिनै करत है नांहि॥556॥
तिय सखियन सौं रिस किए बैठी भौहनि तानि।
पिय संकति कहि सकत है बात न मुँख ते आनि॥557॥
मध्यम नायक-उदाहरण
आवतहीं तिय मान तकि कछू न बोले लाल।
जब सिंगार साजन लगी तब भे लाल निहाल॥558॥
बिनु पानिप आदर नहीं रहे राख मन माहिं।
सुमुखि रूप पानिप लिये मिलति नारि सों नाहिं॥559॥
अधम नायक-उदाहरण
दई लाज बिसराइ जिन लई कुटिलता साथ।
दई दयौ है बाँधि कै ताहि निरदयी हाथ॥560॥
निलज निठुर निज आरथी जेहि न हिताहित चेत।
ऐसे लंगर सों सखी बनै कौन बिधि हेत॥561॥
मानी नायक,
चतुर नायक-वर्णन
मानी नायक चतुरको सठ मैं अंतर भाव।
तिन दोऊ के सकल कवि द्वै बिधि कहत सुभाव॥562॥
मानी उदाहरण
जेहि हित बिनै अँकोर दै करत हुते कर जोरि।
तासों लाल कठोर ह्वै कहा रह्यौ मुख मोरि॥563॥
मानी नायक-भेद
मानी के द्वै भेद ये मन मैं लीजै जानि।
प्रथम रूपमानी बरन गुनमानी पुनि आनि॥564॥
रूपमानी-उदाहरण
खरी अगोर रहीं सबै लखी न तुम इक बारि।
यहि कारी अन्हबारि मै यतौ मान बिस्तारि॥565॥
बार बार हेरत कहा दरपन मैं चित लाइ।
नैकु लखो निज बदन मैं राधे बदन मिलाइ॥566॥
गुनमानी-उदाहरण
अहो निठुर निसि कित बसै इती बात सुनि कान।
कछु... मिसि... करि आपू हरी करîौ बाम सै मान॥567॥
चतुर नायक-लक्षण
निपुन होइ जो सकल बिधि सोई चतुर बखान।
बचन चतुर है एक पुनि क्रिया चतुर पहचान॥568॥
बचन चतुर-उदाहरण
मिसि करि सब सों यौं कह्यौ हरि राधिकहि सुनाइ।
लैहौं पाहन संग ही तौ तुव गाइ मिलाइ॥569॥
कैसी बिधि चमकत हुती अंबर मैं अभिराम।
लखी स्याम कोउ कामिनी नहीं दामिनी बाम॥570॥
नायक-स्वयंदूत
चली कहाँ कीजै कृपा सघन कुंज की छांह।
भुव अकास दोऊ जरत जेठ दुपहरी माँह॥571॥
यह अँधियारी मैं पिया मिलि चलिये किनि आइ।
हम सहाइ तुम होइ तुम मुख दुति हमहि सहाइ॥572॥
क्रियाचतुर-उदाहरण
बिप्र रूप धरि सौ जलै जमुना के तट जाइ।
हरि टीको राधे बदन दयो सबन बहिकाइ॥573॥
आजु लेरुवा देन मिसि मो उर ढिग करि ल्याइ।
उन चंचल यह अनछुई छतियाँ छुई बनाइ॥574॥
प्रोषित नायक-लक्षण
जो तिय नर निजु देस तजि आन देस को जाइ।
तासों प्रोषित कहत हैं यह बरनत कबिराइ॥575॥
उदाहरण
कनक छरी सोभा भरी दामिनि दीपति जाल।
अँमृत बेलि जिवावनी मो ती बिछुरी हाल॥576॥
जब तें तिय तजि हौं परो यह बिदेस मैं आइ।
तब तें इन बतियान सों जीजे हिय दृग लाइ॥577॥
अगिन रूप बनि रे बिरह कत जारत है मोहि।
तिय तन पानिप पाइ कै बोरि मारिहौं तोहि॥578॥
अनभिज्ञ नायक-लक्षण
जो संज्ञा संकेत कौ नैकु न राखै ग्यान।
सो नायक अनभिज्ञ है यह बरनत कवि जान॥579॥
उदाहरण
हँसि हँसाइ अठिलाइ पुनि दृगन चाइ करि ठैन।
ऐठि कामिनि सैन पै लखी न मुरु अहुँ सैन... ॥580॥
रस प्रधानता से चतुर्विध
नायक-कथन
रस प्रधान ते नाम यै नायक पावै चारि।
जो रस जामैं अधिक है ताको कहौं विचारि॥581॥
होत सिँगार प्रधान ते धीर ललित जग आइ।
भई रुधिर की अधिकई धीर उदित कहि जाइ॥582॥
धीर-उदात
धीर प्रधान लहै कहौ नायक धीर उदात।
धीर प्रसांत सो जानु जेहि सार सांति की बात॥583॥
धीर ललित
भूषन बसन बनायबो उज्जलता प्रिय मित्त।
विषै लालसा जानिये धीर ललित कौ चित्त॥584॥
धीरोधिता
रोज घने लघु दोष तें गहिरो गर्व अमर्ष।
निज मुख जस अस्तुति किये धीर उधित को हर्ष॥585॥
धीरोदात
दान दया सत मान सुभ काजन मैं उतसाह।
प्रिया प्रेम जस धर्म मैं घोरउदातहि चाह॥586॥
धीर-प्रधान
तत्व ज्ञान रुचि सत्य गुन धर्माधर्म विवेक।
सोई धीर प्रधान है सज्या की जँह टेक॥587॥
दिव्यादिव्य नायक
लोक भेद से कथन
इन्द्रादिक ये दिव्य हैं मानुस जानि अदिव्य।
अरजुनादि या जगत मैं जानहुँ दिव्यादिव्य॥588॥
नायक की गणना
चारि भाँति पति हैं बहुरि उपपति तीनि प्रमान।
द्वै बैसक मिलि ये सकल नौ बिधि होत निदान॥586॥
उतमादिक मैं गुनत सो सत्तइस पुनि होत।
गुने धीर ललितादि मैं है सत आठ उदोत॥590॥
गने सकल ये भेद जब दिव्यादिक मैं जात।
तब चौबिस अरु तीनि सै सब नायक ठहरात॥591॥
जैसी बरनी नायका तैसै नायक नायक नाहिं।
जे बरनन में उचित हैं तेई बरने जाहिँ॥592॥