भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नित्य उन्होंने चाहा मुझको / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नित्य उन्होंने चाहा मुझको, मैंने सदा किया अपमान।
नित्य उन्होंने मान दिया, पर मैंने किया सदा अभिमान॥
मेरे ही सुख-हेतु नित्य ही दिया उन्होंने सारा प्यार।
पर मैंने अवहेला की नित, देती रही सदा दुतकार॥
बार-बार वे मुझको सुखी बनाने आये मेरे पास।
मधुर बोल सत्कार न करके, लौटा दिया निराश-‌उदास॥
पर वे तनिक न हु‌ए रुष्टस्न्, मुझपर न कदापि किया कुछ रोष।
उनके मनको कभी न दीखा मेरा सहज अल्प-सा दोष॥
देते-देते थके न पलभर, देते रहे सदा सर्वस्व।
मानिनि, किंतु उन्हें क्या देती मैं दरिद्र स्वाभाविक निःस्व॥
अब रो रही अभागिनि, पतिता, दीना मैं अविरत दिन-रात।
याद आ रही मुझको उनकी एक-‌एक अब मीठी बात॥
इसी योग्य हूँ मैं, मिलता है उचित मुझे बस यह परिणाम।
रोना, अश्रु बहाना, व्याकुल स्मृतिमें रहना आठों याम॥
पर मैं मर न सकूँगी, कारण मृत्यु रहेगी मुझसे दूर।
होता नित्य रहेगा उनका स्मरण-सुधा-सिंचन भरपूर॥
यों कहती, रोती वह करती सिसक-सिसककर करुण विलाप।
मूर्च्छित हु‌ई, लगी गिरने, ली थाम भुजामें प्रियने आप॥
हु‌ए प्रकट, रखा सिर अपनी मधुर मनोहर कोमल गोद।
पीताबरसे पोंछ बदन, वे करने लगे पवन मन-मोद॥
गिरे अचानक मुखपर, प्रियतम-प्रेमामोद-सुधाके बिन्दु।
चेत हु‌आ, पा प्रिय गोदीमें, उमड़ा उरमें आनँद-सिन्धु॥
देखा, प्रियतम अपने कर-कमलोंको फिरा रहे सब गात।
अश्रुपूर्ण दृग देख रहे प्रिय अपलक प्यारी-मुख अवदात॥
उठीं, हृदयसे लगीं बही दोनोंके नेत्रोंसे शुचि धार।
वाणी रुद्ध, अमन मन, सारा हु‌आ निरुद्ध सहज व्यापार