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नित समस्या में गलने लगा है / रंजना वर्मा

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नित समस्या में गलने लगा है।
खुद को इंसान छलने लगा है॥

पतझड़ों से भरी हैं दिशाएँ
गोकि मौसम बदलने लगा है॥

इस इमारत का ढाँचा पुराना
लड़खड़ा कर सँभलने लगा है॥

आस के फूल जब खिल न पाये
अश्रु से दिल बहलने लगा है॥

बेचकर लक्ष्य आदर्श मानव
स्वार्थ के हित मचलने लगा है॥

देखकर दुर्दशा इस चमन की
नीर नयनों से ढलने लगा है॥

चाहते हैं रहें चुप मगर अब
दर्द अधरों पर पलने लगा है॥