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निरबंसिया की वंश-बेलि / मुकेश निर्विकार

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गाँव से पाती आई
कोना-कटी
दु:खद समाचार मिला-
“कारे बाबा नहीं रहे”
कारे बाबा-
जीवन भर
अनब्याहे रहे
और मर गए आखिर
निरबंसिया
काट दी अपनी जिंदगी
भाई-भतीजा के साथ रहकर
और उन्हीं के लिए
छोड़ मरे
अपने हिस्से की जमीन।
आज “कारे बाबा’ का
शांति-भोज होगा
दूर मेरे गाँव में
आज के दिन बरबस
याद कर रहा होगा
पूरा गाँव उन्हें
श्रद्धा से नत् होकर
धोंक देगे उनकी राख़ को
उनके भतीजे
कुछ दिन बाद
सिरा आयेंगे गंगा मैया की पवित्तर धार में
उनके फूल
पितरों की ठेक पर
धर दिये जाएँगे कुछ ईट-पत्थर
बना देंगे पुण्य थान
कारे बाबा की स्मृति में
होली-दिवाली तीज-त्योहारों पर
दीया ज़ोर आया करेंगी
नैम से घर की छोरिया व बहुएँ
कनागतों में भूलेंगे नहीं
वामन जीमना एक
‘करे बाबा’ की पुण्य तिथि पर
यह परंपरा चलती रहेगी
साल-दर-साल
बाबा की स्मृति में
मुझे पूरा यकीं है।
फिर कैसे कह दूँ मैं कि
‘कारे बाबा’ बेचारे थे,
अकेले थे, उपेक्षित थे
उनके कोई अपना नहीं रहा
वंश-बेली बढ़ाने को
जबकि उनकी नसीहतों को अपनाए हुए
स्मृतियों को दिल से लगाए हुए
एक पूरी संतति मौजूद है
उनके मरने के बाद भी
दूर मेरे गाँव में
कारे बाबा के ये मानस-पुत्र
कहीं बढ़कर हैं
उनके अनजाये रक्त बीजों से
ये चलायेंगे
किसी निरबंसिया का वंश
उसके सच्चे वारिस बनकर
जीवन की अंतिम साँसों तक।