भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नींद के तालाब में डूब रहा हूँ! / धीरेन्द्र सिंह काफ़िर
Kavita Kosh से
नींद के तालाब में
डूब रहा हूँ
एक कतरा कुरेदा
तो भँवर आ गया
अब ये सर नहीं
जाता उसकी गहराई में
हथेली जो
छप से मारता हूँ
पानी के सीने में तो
उछल के मुँह तक
आता है !
मगर, सर अन्दर
नहीं जाता
भीगता भर है
मुँह पर सूखी बूँदों के
दाग बन जाते हैं
मिट भी जाते हैं
सारी रात ये
उथल-पुथल चलती है
पर नींद नहीं आती
यह गहरी तो बहुत है
मगर मेरी नींद में
शायद........
पत्थर तैरता रहता है !