भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नींद से छूटते ही चला जाऊँगा / जयप्रकाश मानस

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नींद से छूटते ही चला जाऊँगा

मुस्कराहट से बेख़बर

ढेर सारी विपत्तियों

तमाम उहापोहों

समूचे बेगानेपन के

भँवरजाल से फँसे

भोर से पहले चिड़ियों की प्रभाती से कोसों दूर खड़े

उन सभी अपरिचितों के बिलकुल क़रीब

जो मुझसे भी उतने ही अपरिचित हैं

जानना चाहूँगा उतना

जिसके बाद जानने को शेष न रहे रंचमात्र मुझसे

जैसी नदी

जैसे पहाड़

जैसी छांह

जैसी आग

जैसे शब्द

जैसी भाषा

जैसी कविता

जैसे जीवन राग

नहीं बनाया जा सकता दुनिया को बेहतर

सिर्फ इन्द्रधनुषी सपने रचते-रचते

सीधे चला जाऊँगा नींद से बचते-बचाते