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नीड़ फिर तिनका-तिनका / एम० के० मधु
Kavita Kosh से
मेरा सारा अहसास
क़तरा-क़तरा बह रहा था
मैं बटोरने और बांधने
की अथक कोशिश कर रहा था
एक ठोस साकार मूर्ति
मन में संजोकर रखना चाहता था
उसकी
पर मुझमें वह
बर्फ़ की मानिंद पिघल रही थी
मेरे मयूर-पांखी सपनों की वह नायिका
मेघों के घने कोहरे में
लुप्त हो रही थी
ऐसा मेरे साथ हमेशा होता है
तिनका, तिनका जोड़कर
करता हूं उसके लिये एक
नीड़ का निर्माण
पर बसने से पहले ही
नीड़ फिर तिनका-तिनका
हो जाता है।