नीर ख़ूब बरसा है,
रोम-रोम तरसा है;
पीर नहीं जाने की,
नींद नहीं आने की!
एक मेघ शेष रह गया न आसमान में,
खिल गये हज़ार फूल साँवरे वितान में,
किन्तु और-और गात भींग रहा वात का
गूँज रही बूँदों की झरर-झरर कान में,
आँख छलछलाती है,
और सूख जाती है,
पर न मुस्कुराने की!
नैन आज झपते ही खुलते अनजान में,
लगता है रात गई, सो रहा विहान में,
दृष्टि घूम जाती, भ्रम होता बरसात का
पात झरझराते हैं जब-जब सुनसान में,
खीझ कसमसाती है,
चेतना लजाती है,
पर न मुँह छिपाने की!
पानी में डूबा-सा माटी का गेह है,
लहरों में सिहर-सिहर तिरती-सी देह है,
सूख रहे प्राण, जब कि अंग-अंग गिला-सा
उड़ती-सी जाती इन सासों की खेह है,
रोशनी न भाती है,
यह शिखा जलाती है,
पर न दम बुझाने की!