नीलकंठ के दर्शन / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
जब तक जिया, बिछाए तुमने
मेरे मारग में काँटे ही
लेकिन जब न रहूँगा, तब तो
माला-फूल चढ़ाओगे ही।
इतनी ही प्रेरणा बहुत है
साँसों को चलते रहने की;
स्नेह बिना भी धरती के इस
दीपक को जलते रहने की।
जबकि लगेगी बुझने बाती
तब तो हाथ बढ़ाओगे ही।1।
बादल बन कर रहा खींचता
सागर का खारा पानी मैं,
पर धरती को रहा सींचता
बरसा कर मीठा पानी मैं।
बरस चुकूँगा, शरद चाँदनी
का तब कफन उढ़ाओगे ही।2।
मथता रहा सिंधु, उसमें से
निकला विष, निकला अमृत भी;
पिया स्वयं विष, किंतु पिलाया
औरों को मैंने अमृत ही।
जब कि उडूँगा नीलकंठ बन
दर्शन करने आओगे ही।3।
पला सदा मैं काँटों में ही
सही चुभन भी जीवन-भर है
किन्तु दिए है ‘भ्रमर-गीत’ ही
दी गीता भी बीच समर है।
पहुँचूँगा गोलोक, जयंती
तब हर वर्ष मनाओगे ही।4।
आज भले ही समझ न पाए
तुम मुझको, कुछ फिक्र नहीं है;
आज भले ही कहीं बहुत-
मेरा कोई कुछ जिक्र नहीं है।
कल न रहूँगा, चित्र टाँग कर
श्रद्धा-सुमन चढ़ाओगे ही।5।
दोष तुम्हारा नहीं, अभी भी
नर में नर-सिंह की आकृति है,
शूली पर चढ़ना अब तक भी
मुझ जैसों की बनी नियति है।
पर जब शूली से उतरूँगा
तब भगवान बनाओगे ही।6।
31.3.85