नीली सतह पर / कुंवर नारायण
सुख की अनंग पुनरावृत्तियों में,
जीवन की मोहक परिस्थितियों में,
कहाँ वे सन्तोष
जिन्हें आत्मा द्वारा चाहा जाता है ?
शीघ्र थक जाती देह की तृप्ति में,
शीघ्र जग पड़ती व्यथा की सुप्ति में,
कहाँ वे परितोष
जिन्हें सपनों में पाया जाता है ?
आत्मा व्योम की ओर उठती रही,
देह पंगु मिट्टी की ओर गिरती रही,
कहाँ वह सामर्थ्य
जिसे दैवी शरीरों में गाया जाता है ?
पर मैं जानता हूँ कि
किसी अन्देशे के भयानक किनारे पर बैठा जो मैं
आकाश की निस्सीम नीली सतह पर तैरती
इस असंख्य सीपियों को देख रहा हूँ
डूब जाने को तत्पर
ये सभी किसी जुए की फेंकी हुई कौड़ियाँ हैं
जो अभी-अभी बटोर ली जाएँगी :
फिर भी किसी अन्देशे से आशान्वित
ये एक असम्भव बूँद के लिए खुली हैं,
और हमारे पास उन अनन्त ज्योति-संकेतों को भेजती हैं
जिनसे आकाश नहीं
धरती की ग़रीब मिट्टी को सजाया जाता है ।