न्हातई न्हात तिहारेई स्याम कलिन्दजा स्याम भई बहुतै है ।
धोखेहु धोये हौँ यामे कहूँ तो यहै रँग सारिन मेँ सरसैहै ।
सांवरे अंग को रँग कहूँ यह मेरे सुअँगन मेँ लगि जैहै ।
छैल छबीले छुऔगे जु मोँहि तो गात मेँ मेरे गोराई न रैहै ।
रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।