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न कोयल कूके वृन्दावन में / गुलाब खंडेलवाल

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न कोयल कूके वृन्दावन में
पूर्णचंद्र मत मुख दिखलाये राधा के आँगन में

काले कजरारे घन बरसें छिपकर ही सावन में
तड़ित न चमके, मृदु मृदंग-ध्वनि क्यों गूँजे क्षण-क्षण में

'पी' की माला जपे पपीहा, पर अपने ही मन में
उड़ कर जाये मोर द्वारिकापुर के राजभवन में

कटें बाँस के वन, वंशी की तान न पड़े श्रवण में
पनघट को रुख़ करे न कोई आग लगे मधुवन में

न कोयल कूके वृन्दावन में
पूर्णचंद्र मत मुख दिखलाये राधा के आँगन में