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न तू मिलने के अब क़ाबिल रहा है / 'मज़हर' मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
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न तू मिलने के अब क़ाबिल रहा है
न मुज को वो दिमाग़ ओ दिल रहा है
ये दिल कब इश्क के क़ाबिल रहा है
कहाँ इस को दिमाग़ ओ दिल रहा है
ख़ुदा के वास्ते इस को न टोको
यही इक शहर में क़ातिल रहा है
नहीं आता इसे तकिए पे आराम
ये सर पाँव से तेरे हिल रहा है