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न रही अब कुआँर में / केदारनाथ अग्रवाल
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न रही अब कुआँर में
बादलों की चिरकुटिया लँगोटी,
और सूर्य ने
अंतरिक्ष से आँख तरेरी,
कि घामड़ घाम
अनंत आकाश से नीचे उतरा,
जमीन पर नंग-धड़ंग;
कि आग बबूला हो गया भूलोक;
खड़े-के-खड़े सुलगने लगे पेड़;
कि प्यार के परेवा
पीड़ित तड़पने लगे,
लपट में लिपटे पवन और पानी
आह भरने लगे;
कि ताव-खाया दिन हो गया कठिन,
स्याह हुए मृग,
झुलस गए फूलों के दृग,
लोग हुए तापित तन म्लान औ’ मलिन।
रचनाकाल: ०३-०७-१९७९