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पतवार मोड़ लें / यतींद्रनाथ राही

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कहो
कौन से गुन्ताडे़ में
बैठे आज
उदास फकीरे!

कुछ अपना
कुछ दर्द तुम्हारा
कुछ जग का रोना धोना है
लाद लिया है जो कन्धों पर
सारी उमर वही ढोना है
फूटी आँख सुहाता किसको
पल-दो पल भी तुम मुस्काओ
रोते ही अच्छे लगते हो
किसे ज़रूरत है तुम गाओ
अभी,
हाषिये पर ही प्यारे!
बैठ, ठोकते रहो मँजीरे।

पानीदार बहुत थे बादल
झरे पहाड़ों से टकराकर
हाँक ले गयी जिधर हवाएँ
चले उधर ही पूँछ हिलाकर
जिसकी लाठी भैंस उसी की
लिखो, उसी की कुछ यश-गाथा
धरा नहीं कुछ इन गीतों में
नाहक फोड़ रहे हो माथा
लाज ढाँकनी है तो तुम भी
बुन लो चादर एक, कबीरे!

सम्मानों की बड़ी क़तारें
कौन, तुम्हें पूछेगा माई
काम नहीं आने वाली कुछ
यह, निषि-दिन की कलम घिसाई
तिकड़म लगा पकड़ लो कोई
राजा का रानी का साला
बड़ी सियासत सब धकता है
क्या गोरा है क्या है काला
आजाएगी बात समझ में
अभी नहीं तो धीरे-धीरे।