(राग हंसनारायणी-तीन ताल)
‘पता लगाकर सीताका खुद मिलकर हैं आये हनुमान।
मेरे, लक्ष्मणकेञ्, रघुकुञ्लकेञ् रक्षक परम महाबलवान॥
वस्तु न मेरे पास योग्य दूँ जिसको इन्हें आज उपहार।
ऋञ्णसे मुक्तञ् हो नहीं सकता मैं कदापि, कर चुका विचार॥
आज इस समय मैं देता हूँ इनको बस, आलिङङ्गन-दान।
मेरा यह सर्वस्व, महात्मा इससे हों प्रसन्न हनुमान॥
(यों कह-) पुलकित हुए अङङ्ग सब, उमड़ा राघवकेञ् मन प्रेम अनन्य।
किया कृञ्तात्मा सेवकको दे गाढ़ालिङगन प्रभुने धन्य॥