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पथरीले गांव की बुढ़िया / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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जल रही हैं उसकी बुझती आंखों में
संमत की लपटें
बुढ़िया है वह बथान की रहने वाली
मानों कांप रही हो करवन की पत्तियां
तुम्हें सुनाने को थाती है उसके पास
राजा-रानी, खरगोश, नेवले
और पंखों वाले सांप की
कभी न सूखने वाले ढेर सारी कहानियों की स्रोत
रखी है जंतसार और पराती की धुनें
चक्का झुकते ही
पूफट पड़तीं उसकी कंठ की कहरियां
बंसवार से गुजरते ही
मिल जायेगा पीली मिट्टी से पोता उसका घर
दीवालों से चिपके मिलेंगे
हाथी घोड़ा लाल सिन्होरा
पूफल पत्तियों के बने चितकाबर चेहरे
मिल जायेंगी किसी कोने में भूल रहीं
उसकी सपनों की कहानियां
एक सोयी नदी है बुढ़िया के
घर से गुजरती हुई
खेत-खलिहान
धन-पान के बीचों-बीच निकलती जाती
वह हो जाती पार नन्हीं-सी डेंगी पर
सतजुग की बनी मूरत है बुढ़िया
उजली साड़ी की किनारीदार
धरियों के बीच झूलती हुई
गुजार ले आयी है
जिन्दगी की उकताहट भरी शाम
रेत होते जा रहे हैं खेत
गुम होते जा रहे हैं बिअहन अन्न के दानें
टूट-पूफट रहे हैं हल-जुआठ
जंगल होते शहर से झउफंसा गये हैं गांव
...दैत्याकार मशीन यंत्रों, डंकली बीजों
विदेशी चीजों के नाले में गोता खाते
खोते जा रहे हैं हम निजी पहचान...
सिर पर उचरते कौवे को निहारती
तोड़ती हुई चुप्पी की ठठरियां
लगातारलाल चोंच वाले पंछी 11
गा रही है झुर्रियों वाली बुढ़िया
जैसे कूक रही हो अनजान देश से आई
कोई खानाबदोश कोयल
और पिघलता जा रहा हो
पथरा चुका सारा गांव।