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पथ की जगह / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

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पथ की जगह एक तस्वीर मुझे दिखलाती है!
इसीलिये तो इन क़दमों की गति बढ़ती ही जाती है!
साथ नहीं है कोई मेरे
जो-कि छूट जाने का डर हो,
पास नहीं है कुछ भी ऐसा
गिर जाये, उदास अन्तर हो;
छाँह नहीं है इन राहों में
जो-कि थकन यों-ही आ जाये,
पनघट यहाँ कहाँ मिलते हैं,
जो कि प्यास बरबस लग आये;
दर्पण लेती, फिर रख देती फिर तू उसे उठाती है!
पथ की जगह एक तेरी तस्वीर मुझे दिखलाती है!
इसीलिये तो इन क़दमों की गति बढ़ती ही जाती है!
समय कहाँ है मुड़कर देखूँ
कितनी दूर आ गया घर से,
जब न लौट कर मुझको आना
मेल करूँ क्यों डगर-डगर से;
मिलते गाँव पंथ में, लेकिन
एक ओर को रह जाते हैं,
अपनी मंजिल तक जाने के
मार्ग सभी मुझको आते हैं;
कीर पढ़ाती, कुछ-कुछ गाती, औ’ फिर बोल न पाती है!
पथ की जगह एक तेरी तस्वीर मुझे दिखलाती है!
इसीलिये तो इन कदमों की गति बढ़ती ही जाती है!
भूल गया सब-कुछ, जब से
तेरी पीड़ा पहचानी है,
मस्तक पर ये झलकी बूँदें
तेरी आँखों का पानी है;
रुकने का न बहाना कोई
राह पड़ी है सूनी मेरी,
पथ ने मेरी काया घेरी
मैंने पथ की काया घेरी;
तरल हथेली, चूम नवेली, नभ पर आँख लगाती है!
पथ की जगह एक तस्वीर मुझे दिखलाती है!
इसीलिये तो इन क़दमों की गति बढ़ती ही जाती है!