पथ पर / गोपीकृष्ण 'गोपेश'
पथ पर बढ़ चली है रात,
और सहसा बादलों से भर गया आकाश,
वे न बरसे, भीगने सी पर लगी है श्वास,
मेरी वह न जाए आस —
कौन जाने प्राण को पथ
ज्ञात या अज्ञात !
पथ पर बढ़ चली है रात !!
और बादल की कड़क सुन कँप उठा उच्छवास,
गिरी पथ पर, गिरी बिजली, यहाँ मेरे पास !
कैसे हो मुझे विश्वास —
रस भला क्या, दे सकेगी विष —
मुझे बरसात !
पथ पर बढ़ चली है रात !!
और जलता है वहाँ तू म्लान, दीपक दान,
और जलता है कि मेरी कान्ति तुझमें लीन,
मेरी चेतना ले छीन
मैं मिटूँ, तू जगमगाए,
अमित सुख की बात !
पथ पर बढ़ चली है रात !!