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पद 131 से 140 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 3
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पद (135-1) से (135-2) तक
(135-1)
राम सनेही सों तैं न सनेह कियो।
अगम जो अमरनि हूँ सेा तनु तोहिं दियो ।।
दियो सुकुल जनम, सरीर सुंदर, हेतु जो फल चारिको।
जो पाइ पंडित परमपद, पावत पुरारि-मुरारिको।।
यह भरतखंड , समीप सुरसरि,थल भलो, संगति भली।
तेरी कुमति कायर! कलप-बल्ली चहति है बिष फल फली।।
(135-2)
अजहूँ समुझि चित दै सुनु परमारथ।
है हितु सेा जगहूँ , जाहिते स्वारथ।
स्वारथहि प्रिय , स्वारथ सो का ते कौन बेद बखानई।
देखु खल, अहि-खेल परिहरि, सेा प्रभुहि पहिचानई।।
पितु-मातु, गुरू, स्वामी, अपनपौ, तिय,तनय , सेवक, सखा।
प्रिय लगत जाके प्रेमसों, बिनु हेतु हित तैं नहिं लखा।।