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पद 131 से 140 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2

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पद 133 से 134 तक

 (133)

तोसो हौं फिरि हित, प्रिय, पुनीत सत्य बचन कहत।
सुनि मन, गुनि , समुझि ,क्यों न सुगम सुमग गहत।1।

छोटो बड़ो , खोटो खरो, जग जो जहँ रहत।
अपनो अपनेको भलो कहहु, को न चहत।2।

बिधि लागि लघु कीट अवधि सुख सुखी, दुख दहत।
 पसु लौं पसुपाल ईस बाँधत, छोरत, नहत।3।

 बिषय मुद निहार भार सिर काँधे ज्यों बहत।
यांेही जिय जानि, मानि सठ! तू साँसति सहत।4।

पायेा केहि घृत, बिचारू, हरित-बारि महत।
तुलसी तकु ताहि सरन, जाते सब लहत।5।

(134)

ताते हैंा बार बार देव! द्वार परि पुकार करत।
आरति, नति, दीनता कहें प्रभु संकट हरत।1।

लोकपाल सोक-बिकल रावन-डर डरत।
का सुनि सकुचे कृपालु नर-सरीर धरत।2।

कौसिक, मुनि-तीय, जनक सोच -अनल जरत।
साधन केहि सीतल भये, सो न समुझि परत।3।

केवट, खग, सबरि सहज चरनकमल न रत।
 सनमुख तोहिं होत नाथ! कुतरू सुफरू फलत।4।

बंधु-बैर कपि -बिभीषन गुरू गलानि गरत।
सेवा केहि रीझि राम, किये सरिस भरत।5।

सेवक भयो पवनपूत साहिब अनुहरत।
ताको लिये नाम राम सबको सुढर ढरत।6।

 जाने बिनु राम-रीति पचि पचि जग मरत।
 परिहरि छल सरन गये तुलसिहु-से तरत।।7।