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पद 141 से 150 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 1

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पद संख्या 141 तथा 142

(141)

रामचंद्र! रघुनायक तुमसों हौं बिनती केहि भाँति करौं।
अघ अनेक अवलोकि आपने, अनघ नाम अनुमानि डरौं।1।

पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नहिं हृदय धरौं।
देखि आनकी बिपति परम सुख, सुनि संपति बिनु आगि जरौं।2।

 भगति-बिराग -ग्यान साधन कहि बहु बिधि डहकत लोग फिरौं।
सिव-सरबस सुखधाम नाम तव, बेंचि नरकप्रद उदर भरौं।3।

जानत हौं निज पाप जलधि जिय, जल सीकर सम सुनत लरौं।
रज-सम पर-अवगुन सुमेरू करि, गुन गिरि-सम रजतें निदरौं।।

नाना बेष बनाय दिवस-निसि , पर-बित जेहि तेहिं जुगुति हरौं।
एकौ पल न कबहुँ अलोल चित हित दै पद -सरोेज सुमिरौं।5।

जो आचरन बिचारहु मेरो, कलप कोटि लगि औटि मरौ।
तुलसिदास प्रभु कृपा-बिलोकनि, गोपद-ज्यांे भव सिंधु तरौं।6।

(142)

सकुचत हौं अति राम कृपानिधि! क्यों करि बिनय सुनावौं।
सकल धरम बिपरीत करत, केहिं भाँति नाथ! मन भावौं।1।

जानत हौं हरि रूप् चराचर, मैं हठि नयन न लावौं।
अंजन -केस-सिखा जुवती, तहँ लोचन-सलभ पठावौं।2।

स्त्रननि को फल कथा तुम्हारी, यह समुझौं, समुझावौं।
तिन्ह स्त्रवननि परदोष निरंतर सुनि सुनि भरि भरि तावौं।3।

जेहि रसना गुन गाइ तिहारे, बिनु प्रयास सुख पावौं ।
तेहि मुख पर-अपवाद भेक ज्याों रटि-रटि जनम नसावौं।4।

‘करहु हृदय अति बिमल बसहिं हरि’, कहि कहि सबहिं सिखावौं।
हौं निज उर अभिमान -मोह-मद खल -मंडली बसावौ।5।

जो तनु धरि हरिपद साधहिं जन, सो बिनु काज गँवावौं।
 हाटक-घट भरि धर्यो सुधा गृह, तजि नभ कूप खनावौ। 6।

मन-क्रम-बचन लाइ कीन्हे अघ, ते करि जतन दुरावौं।।
 पर-प्रेरित इरषा बस कबहुँक किय कछु सुभ, सो जनावौं।7।

बिप्र -द्रोह जनु बाँट पर्यो, हठि सबसों बैर बढ़ावौं।
ताहूपर निज मति-बिलास सब संतन माँझ गनावौ।8।

निगम, सेस, सारद निहोरि जो अपने दोष कहावौं।
तौ न सिराहिं कलप सत लागि प्रभु , कहा एक मुख गावौं।9।

जो करनी आपनी बिचारौं, तौ कि सरन हौं आवौं।
मृदुल सुभाउ सील रघुपति को, सो बल मनहिं दिखावौं।10।

तुलसिदास प्रभु सो गुन नहिं जेहिं सपनेहुँ तुमहिं रिझावौं।
नाथ-कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौं।11।