पद 141 से 150 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2
पद संख्या 143 तथा 144
(143)
सुनहु राम रघुबीर गुसाईं, मन अनीति-रत मेरो।
चरन सरोज बिसारि तिहारे, निसिदिन फिरत अनेरो।1।
मानत नहिं निगम-अनुसासन , त्रास न काहू केरो।
भूल्यो सूल करम-कोलुन्ह तिल ज्यों बहु बारिनि पेरो।2।
जहँ सतसंग कथा माधव की, सपनेहुँ करत न फेरो।
लोभ-मोह-मद-काम-कोह-रत, तिन्हसों प्रेम घनेरो।3।
पर-गुन सुनत दाह, पर-दूषन सुनत हरख बहुतेरो।
आप पापको नगर बसावत , सहि न सकत पर खेरो।4।
साधन-फल ,श्रुति-सार नाम तव , भव -सरिता कहँ बेरो।
सो पर-कर काँकिनी लागि सठ, बेंचि होत हठि चेरो।5।
कबहुँक हौं संगति-प्रभावतें , जाउँ सुमारग नेरो।
तब करि क्रोध संग कुमनोरथ देत कठिन भटभेरो।6।
इक हौं दीन, मलीन, हीनमति, बिपतिजाल अति घेरो।
तापर सहि न जाय करूनानिधि ,मनको दुसह दरेरो।7।
हारि पर्यो करि जाय बहुत बिधि, तातें कहत सबेरो।
तुलसिदास यह त्रास मिटै जब हृदय करहु तुम डेरो।8।
(144)
सो धौं को जो नाम-लाज तें, नहिं राख्यो रघुबीर।
कारूनीक बिनु कारन ही हरि हरी सबल भव-भीर।1।
बेद-बिदित, जग-बिदित अजामिल बिप्रबंधु अध-धाम।
घोर जमालय जात निवार्यो सुत-हित सुमिरत नाम।2।
पसु पामर अभिमान-सिंधु गज ग्रस्यो आइ जब ग्राह।
सुमिरत सकृत सपदि आये प्रभु, हरयो दुसह उर दाह।3।
ब्याध, निषाद, गीध, गनिकादिक, अगनित औगुन-मूल।
नाम-ओटतें राम सबनिकी दूरि करी सब सूल।4।
केहि आचरन घाटि हौं तिनतें, रघुकुल-भूषन भूप।
सीदत तुलसिदास निसिबासर पर्यो भीम तम-कूप।5।