पद 141 से 150 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 3
पद संख्या 145 तथा 146
(145)
कृपासिंधु! जन दीन दुवारे दादि न पावत काहे।
जब जहँ तुमहिं पुकारत आरत, तहँ तिन्हके दुख दाहे।1।
गज, प्रहलाद, पांडुसुत, कपि सबको रिपु-संकट मेट्यो।
प्रनत, बंधु-भय-बिकल, बिभीषन, उठि सो भरत ज्यों भेट्यो।2।
मैं तुम्हरो लेइ नाम ग्राम इक उर आपने बसावों ।
भजन, बिबेक, बिराग , लोग , भले, मैं क्रम-क्रम करि ल्यावों।3।
सुनि रिस भरे कुटिल कामादिक, करहिं जोर बरिआईं।
तिन्हहिं उजारि नारि-अरि-धन पुर राखहिं राम गुसाईं।4।
सम-सेवा-छल-दान -दंड हौं, रचि उपाय पचि हार्यो।
बिनु कारनको कलह बड़ो दुख, प्रभुसों प्रगटि पुकार्यो।5।
सुर स्वारथी, अनीस, अलायक, निठुर , दया चित नाहीं।
जाउ कहा, को बिपति-निवारक, भवतारक जग माहीं।
तुलसी जदपि पोच, तउ तुम्हरो, और न काहू केरो।
दीजै भगति -बाँह बारक, ज्यों सुबस बसै अब खेरो।7।
(146)
हौं सब बिधि राम, रावरो चाहत भयो चेरो।
ठौर ठौर साहबी होत है , ख्याल काल कलि केरो।1।
काल -करम-इंद्रिय-बिषय गाहकगन घेरो।
हौं न कबूलत, बाँधि कै मोल करत करेरो।2।
बंदि-छोर तेरो नाम है, बिरूदैत बड़ेरो।
मै कह ्यो, तब छल-प्रीति कै माँगे उर डेरो।3।
नाम ओट अब लगि बच्यो मलजुग जग जेरो।
अब गरीब जन पोषिये पाइबो न हेरो।4।
जेहिं कौतुक बक(खग) स्वानको प्रभु न्याव निबेरो।
तेहि कौतुक कहिये कृपालु! ‘त्ुालसी है मेरो’।5।