पद 141 से 150 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4
पद संख्या 147 तथा 148
(147)
कृपासिंधु तातें रहौं निसिदिन मन मारे।
महाराज! लज आपुही निज जाँघ उघारे।1।
मिले रहैं , मार्यो चहैं कामादि संघाती।
मो बिनु रहैं न , मेरियै जारैं छल छाती।2।
बसत हिये हित जानि मैं सबकी रूचि पाली।
कियो कथकको दंड हौं जड़ करम कुचाली।3।
देखी सुनी न आजु लौं अपनायति ऐसी।
करहिं सबै, सिर मेरे ही फिरि परै अनैसी।4।
बड़े अलेखी लखि परैं, परिहरै न जाहीं।
असमंजस में मगन हौं, लीजै गहि बाहीं।5।
बारक बलि अवलोकिये, कौतुक जन जी को।
अनायास मिटि जाइगो संकट तुलसीको।6।
(148)
कहौं कौन मुहँ लाइ कै रघुबीर गुसाईं।
सकुचत समुझत आपनी सब साइँ दुहाई।1।
सेवत बस, सुमिरत सखा , सरनागत सो हौं।
गुनगन सीतानाथके चित करत न हौं हौं।2।
कृपासिंधु बंधु दीनके आरत-हितकारी।
प्रनत-पाल बिरूदावली सुनि जानि बिसारी।3।
सेइ न धेइ न सुमिरि कै पद-प्रीति सुधारी।
पाइ सुसाहिब राम सों , भरि पेट बिगारी।4।
नाथ गरीब निवाज हैं , मैं गही न गरीबी।
तुलसी प्रभु निज ओर तें बनि परै सो कीबी।5।