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पद 141 से 150 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 5

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पद संख्या 149 तथा 150
(149)
कहाँ जाउँ, कासों कहौं, और ठौर न मेरे।
जनम गँवायो तेरे ही द्वार किंकर तेरे।1।

मैं तो बिगारी नाथ सों आरतिके लीन्हें।
तोहि कृपानिधि क्यों बनै मेरी-सी कीन्हें।2।

दिन-दुरदिन दिन-दुरदसा, दिन-दुख दिन-दूषन।
जब लौं तू न बिलोकिहै रघुबंस-बिभूषन।3।

दई पीठ बिनु डीठ मैं तुम बिस्व-बिलोचन।
तो सों तुही न दूसरो नत-सोच-बिमोचन।4।

पराधीन देव दीन हौं, स्वाधीन गुसाईं।
बोलनिहारे सो करै बलि बिनयकी झाई।।5 ।

आपु देखि मोहि देखिये जन मानिय साँचो।
बड़ी ओट रामनामकी जेहि लई सो बाँचो।6।

रहनि रीति राम रावरी नित हिय हुलसी है।
ज्यों भावैं त्यों करू कृपा तेरो तुलसी है।7।

(150)
रामभद्र! मेहिं आपनो सोच है अरू नाहीं ।
जीव सकल संतापके भाजन जग माहीं।।

नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ।
तोको मोसे अति घने मोको एकै तूँ।।

बडी़ गलानि हिय हानि है सरबग्य गुसाईं।
कूर कुलसेवक कहत हौं सेवककी नाईं।

भलो पोच रामको कहैं मोहि सब नरनारी।।
बिगरे सेवक स्वान ज्यों साहिब-सिर गारी।।

असमंजस मनको मिटै सो उपाय न सूझै।
दीनबंधु! कीजै सोई बनि परै जो बूझे।।

बिरूदावली बिलोकिये तिन्हमें कोउ हौं हौ।
तुलसी प्रभुको परिहर्यो सरनागत सो हौ।।