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पद 171 से 180 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4

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पद संख्या 177 तथा 178

 (177)
जो तुम त्यागों राम हौं तौ नहिं त्यागो।
परिहरि पाँय कहि अनुरागों ।1।

सुखद सुप्रभु तुम सो जग माहीं।
श्रवन-नयन-मन गोचर नाहीं।2।

 हौ जड़ जीव, ईस रघुराया।
तुम मायापति, हौं बस माया।3।

हौं तो कुजातक, स्वामी सुदाता।
हौं कुपूत, तुम हितु पितु-माता।4।

जो पै कहुँ कोउ बूझत बातो।
तौ तुलसी बिनु मोल बिकातो।5।

(178)
भयेहु उदास राम, मेरे आस रावरी।
आरत स्वारथी सब कहैं बात बावरी।1।

जीवनको दानी घन कहा ताहि चाहिये।
प्रेम-नेमके निबाहे चातक सराहिये।2।

मीनतें न लाभ -लेस पानी पुन्य पीनकेा।
जल बिनु थल कहा मीचु बिनु मीनको।3।

बड़े ही को ओट बालि बाँचि आये छोटे हैं।
चलत खरेके संग जहाँ-तहाँ खोटे हैं।4।

यहि दरबार भलो दाहिनेहु-बामको।
मोको सुभ्रदायक भरोसो राम-नामको।5।

कहत नसानी ह्वैहै हिये नाथ नीकी है।
जानत कृपानिधान तुलसीके जीकी है।6।