पद 171 से 180 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 5
पद संख्या 179 तथा 180
(179)
कहाँ जाउँ, कासों कहौं, कौन सुनै दीनकी।
त्रिभुवन तुही गति सब अंगहीनकी।1।
जग जगदीस घर धरनि घनेरे हैं।
निराधारके अधार गुनगन तेरे हैं।2।
गजराज-काज खगराज तजि धायो को।
मोसे दोस-कोस पोसे , तोसे माय जायो को।3।
मोरो क्रूर कायर कुपूत कौड़ी आधके।
किये बहुमोल तैं करैया गीध-श्राधके।4।
तुलसीकी तेरे ही बनाये , बालि, बनैगी।
प्रभुकी बिलंब -अंब दोष -दुख जनैगी।5।
(180)
बालक बिलोकि , बलि कीजै मोहिं आपनो।
राय दशरथके तू उथपन-थापनो। 1।
साहिब सरनपाल सबल न दूसरो।
तेरो नाम लेेत ही सुखेत होत ऊसरो।2।
बचन करम तेरे मेरे मन गड़े है।
देखे सुने जाने मैं जहान जेते बड़े हैं।3।
कौन कियो समाधान सनमान सीलाको।
भृगुनाथ सो रिषी जितैया कौन लीलाको।4।
मातु-पितु-बन्धु-हितू, लोक-बेदपाल को।
बोलको अचल , नत करत निहाल को।5।
संग्रही सनेहबस अधम असाधुको।
गीध सबरीको कहौ करिहै सराधु को।
निराधारकेा अधार, दीनको दयालु को।
मीत कपि-केवट-रजनिचर-भालु को।7।
रंक, निरगुनी, नीच जितने निवाजे हैं।
महाराज! सुजन-समाज ते बिराजे हैं।8।
साँची बिरूदावली, न बढ़ि कहि गई है।
सीलसिंधु! ढील तुलसीकी बेर भई है।9।