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पद 1 से 10 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4

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पद 7 से 8 तक

  (7)

क्कस न दीनपर द्रवहु उमाबर।
दारून बिपति हरन करूनाकर।।

बेद-पुरान कहत उदार हर।
हमरि बेर कस भयेहु कृपिनतर।।

कवनि भगति कीन्ही गुननिधि द्विज।
होइ प्रसन्न दिन्हेहु सिव पद निज।।

जो गति अगम महामुनि गावहिं।
तव पुर कीट पतंगहु पावहिं।।

देहु काम-रिपु!राम-चरन-रति।
तुलसिदास प्रभु! हरहु भेद-मति।।

(8)

श्री देव बड़े , दाता बड़े ,संकर बड़े भोरे।
किये दूर दुख सबनिके, जिन्ह- जिन्ह कर जोरे।।

सेवा, सुमिरन, पूजिबौ, पात आखत थोरे।
 दिये जगत जहँ लगि सबै, सुख, गज ,रथ, घोरे।।

गाँव बसत बामदेव, में कबहूँ न निहोरे।
अधिभौतिक बाधा भई , ते किंकर तोरे।।

बेगि बोलि बालि बरजिये, करतूति कठोरे ।
तुलसिदास-दलि रूँध्यो चहैं सठ सांखि सिहोरे।।।