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पद 1 से 10 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 3

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पद 5 से 6 तक

 
(5)

बावरो रावरो नाह भवानी।
दानि बडो दिन दये बिनु, बेद-बड़ाई भानी।1।

निज घरकी बरबात बिलाकहु, हौ तुम परम सयानी।
सिवकी दई संपदा देखत, श्री-सारदा सिहानी।।

जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी।
 तिन रंकनकौ नाक सँवारत, हौं आयो नकबानी।।

दुख-दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी।
यह अधिकार सौंपिये औरहिं, भाीख भली मैं जानी।।

प्रेम-प्रसंसा-बिनय-ब्यंगजुत, सुति बिधिकी बर बानी।।
तुलसी मुदित महेस मनहिं मन, जगतु-मातु मुसकानी।।

(6)

जँाचिये गिरिजापति कासी।
जासु भवन अनिमादिक दासी।।

औढर-दानि द्रवत पुनि थोरें।
सकत न देखि दीन कर जोरें।।

सुख-संपति, मति-सुगति, सुहाई।
सकल सुलभ संकर-सेवकाई।।

गये सरन आरतिकै लीन्हें।
निरखि निहाल निमिषमहँ कीन्हें।।

तुलसिदास -जातक जस गावैं।
बिमल भगति रघुपतिकी पावै।