पद 201 से 210 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 1
पद संख्या 201 तथा 202
(201)
लाभ कहा मानुष -तनु पाये।
काय, बचन, मन, सपनेहुँ कबहुँक घटत न काज पराये।1।
जो सुख सुरपुर-नरक, गेह-बन आवत बिनहिं बुलाये।
तेहि सुख कहँ बहु जतन करत मन, समुझत नहिं समुझाये।2।
पर-दारा, पर-द्रोह, मोहबस किये मुढ़ मन भाये।
गरभबास दुखरासि जातना तीब्र बिपति बिसराये।3।
भय-निद्रा, मैथुन -अहार, सबके समान जग जाये।
सुर-दुरलभ तनु धरि न भजे हरि मद अभिमान गवाँये।4।
गई न निज -पर-बुद्धि , सुद्ध ह्वै रहे न राम-लय लाये।
तुलसिदास यह अवसर बीत का पुनि के पछिताये।5।
(202)
काजु कहो नरतनु धरि सार्यो।
पर-उपकार सार श्रुतिको जो, सो धोखेहु न बिचारयो।1।
द्वैत-मूल, भय -सूल, सोक-फल , भवतरू टरै न टार्यौ।
रामभजन-तीछन कुठार लै सो नहिं काटि निवारृयो।2।
संसय-सिंधु नाम-बोहित भजि निज आतमा न तार्यो।
जनम अनेक विवेकहीन बहु जोनि भ्रमत नहिं हार्यो।3।
देखि आनकी सहज संपदा द्वेष -अनल मन-जार्यो।
सम, दम, दया, दीन-पालन, सीतल हिय हरि न सँभार्यो।4।
प्रभु गुरू पिता सखा रघुपति तैं मन क्रम बचन बिसार्यो।
तुलसिदास यहि आस, सरन राखिहि जेहि गीध उधार्यो।5।