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पद 201 से 210 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2

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पद संख्या 203 तथा 204

(203)
 
श्रीहरि- गुरू -पद कमल भजहु मन तजि अभिमान।
जेहि सेवत पाइय हरि सुख-निधान भगवान। 1।

परिवा प्रथम प्रेम बिनु राम-मिलन अति दूरि।
जद्यपि निकट हृदय निज रहे सकल भरिपूरि।2।

दुइज द्वैत-मति छोड़ि चरहि महि-मडंल धीर।
बिगत मोह-माया-मद हृदय बसत रघुबीर।3।

तीज त्रिगुन-पर परम पुरूष श्रीरमन मुकुंद।
गुन सुभाव त्यागे बिनु दुरलभ परमानंद।4।

चौथि चारि परिहरहु बुद्धि-मन -चित-अहंकार
बिमल बिचार परमपद निज सुख सहज उदार।5।

 पाँचइ पाँच परस, रस, सब्द, गंध अरू रूप।
 इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप।6।

छठ षटरग करिय जय जनकसुता-पति लागि।
रघपति -कृपा -बारि बिनु नहिं बुताइ लोभागि।7।

सातैं सप्तधातु-निरमित तनु करिय बिचार।
तेहि तनु केर एक फल कीजै पर-उपकार।8।

आठइँ आठ प्रकृति -पर निरबिकार श्रीराम।
केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय बसहिं बहु काम।9।

नवमी नवद्वार -पुर बसि जेहि न आपु भल कीन्ह।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत दारून दुख लीन्ह।10।

दसइँ दसहु-कर संजम जो न करिय जिय जानि।
साधन बृथा होइ सब मिलहिं न सारँगपानि।11।

एकादसी एक मन बस कै सेवहु जाइ।
सोइ ब्रत कर फल पावै आवागमन नसाइ।12।

 द्वादसि दान देहु अस, अभय होइ त्रैलोक।
परहित-निरत सो पारन बहुरि न ब्यापत सोक।13।

तरसि तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवंत।
मन-क्रम-बचन-अगोचर,ब्यापक, ब्याप्त, अनंत।14।

चोदसि चौदह भुवन अचर-चर -रूप गोपाल।
भेद गये बिनु रघुपति अति न हरहिं जग-जाल।15।

पनों प्रेम-भगति -रस हरि-रस जानहिं दास।
सम , सीतल, गत-मान, ग्यानरत, बिषय-उदास।16।

 त्रिबिधि सूल होलिय जरै, खेलिय अब फागु।
जो जिय चहसि परमसुख , तौ यहि मारग लागु।17।

श्रुति-पुरान-बुध -संमत चाँचरि चरित मुरारि।
करि बिचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि। 18।

संसय -समन , दमन दुख , सुखनिधान हरि एक।
 साधु-कृपा बिनु मिलहिं न करिय उपाय अनेक।19।

 भव सागर कहँ नाव सुद्ध संतनके चरन।
तुलसिदास प्रयास बिनु, मिलहिं राम दुखहरन।20।

(204)

जो मन लागै राचरन अस।
देह-गेह-सुत-बित-कलत्र महँ मगन होत बिनु जतन किये जस। 1।

द्वंद्वरहित,गतमान, ग्यानरत, बिषय-बिरत खटाइ नाना कस।
सुख निधान सुजान कोसलपति ह्वै प्रसन्न, कहु, क्यों न होंहि बस।2।

सर्वभूत -हित निर्ब्यलीक चित, भगति-प्रेम दृढ़ नेम, एकरस।
तुलसिदास यह होइ तबहिं जब द्रवै ईस, जेहि हतो सीसदस।3।