विनयावली / तुलसीदास / पद 221 से 230 तक / पृष्ठ 3
पद संख्या 225 तथा 226
 (225)
भरोसो और आइहै उर ताके। 
कै कहुँ लहै जो रामहि-सो साहिब, कै अपनो बल जाके।। 
कै कलिकाल कराल न सूझत, मोह-मार-मद छाके। 
कै सुनि स्वामि-सुभाउ न रह्यो चित जो हित सब अंग थाके।। 
हौं जानत भलिभाँति अपनपो, प्रभु-सो सुन्यो न साके। 
उपल, भील,खग, मृग, रजनीचर, भले भये करतब काके।।
 (226)
भरोसो जाहि दूसरो सो करो। 
मोको तो रामको नाम कलपतरू कलि कल्यान फरो।1।
 करम, उपासन , ग्यान, बेदमत, सो सब भाँति खरो। 
मोहि तो ‘ सावनके अंधहि’ ज्यों सूझत रंग हरो।2। 
चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों कबहुँ न पेट भरो। 
सो हौं सुमिरत नाम-सुधारस पेखत परूसि धरो।3। 
स्वारथ औ परमारथ हू को नहि कुुंजरो -नरो। 
सुनियत सेतु पयोधि पषाननि करि कपि कटक-तरो।4। 
प्रीति-प्रतीति जहाँ  जाकी , तहँ ताको  काज सरो।
 मेरे ते माय-बाप देाउ आखर, हौं सिसु -अरनि अरो।5।
 संकर साखि जो राखि कहौं कछु तौ जरि जीह गरो। 
अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो।6।
	
	