पद 231 से 240 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 1
पद संख्या 231 तथा 232
(231)
और मोहि को है, काहि कहिहौं?
रंक-राज ज्यों मनको मनोरथ , केहि सुनाइ सुख लहिहौं।1।
जम-जातना, जोनि-संकट , सब सहे दुसह , अरू सहिहौं।
मोको अगम , सुगम तुमको प्रभु, तउ फल चारि न चहिहौं।2।
खलिबेको खग-मृग , तरू -कंकर ह्वै रावरो राम हौं रहिहौ।
यहि नाते नरकहुँ सचु या बिनु परमपदहुँ दुख दहिहौं।3।
इतनी जिय लालसा दासके, कहत पानही गहिहौं।
दीजै बचन कि हृदय आनिये ‘तुलसीको पन निर्बहिहौं’।4।
(232)
दीनबंधु दूसरो कहँ पावौं?
को तुम बिनु पर-पीर पाइ है? केहि दीनता सुनावों।1।
प्रभु अकृपालु , कृपालु अलायक , जहँ-जहँ चितहिं डोलावों।
इहै समुझि सुनि रहौं मौन ही, कहि भ्रम कहा गवावों।2।
गोपद बुड़िबे जोग करम करौं , बातनि जलधि थहावों।
अति लालची, काम-किंकर मन, मुख रावरो कहावों।3।
तुलसी प्रभु जिय की जानत सब, अपनो कछुक जनावों।
सो कीजै , जेहि भाँति छाँड़ि छल द्वार परो गुन गावों।4।