पद 231 से 240 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2
पद संख्या 233 तथा 234
 (233)
मनोरथ मनको एकै भाँति। 
चाहत मुनि-मन-अगम सुकृत -फल , मनसा अघ न अघाति।1। 
करमभूमि कलि जनम, कुसंगति, मति बिमोह-मद-माति।
 करत कुजोग कोटि , क्यों  पैयत परमारथ-पद सांति।2।
 सेइ साधु-गुरू , सुनि पुरान -श्रुति बूझ्यो  राग बाजी ताँति।
 तुलसी प्रभु सुभाउ सुरतरू -सो , ज्यों दरपन मुख-कांति।3।
(234)
जनम गयो बादिहिं बर बीति। 
परमारथ पाले न पर्यो कछु, अनुदिन अधिक अनीति।1। 
खेलत खात लरिकपन गो चलि, जौबन जुवतिन लियो जीति।
  रोग-बियोग-सोग -श्रम-संकुल बड़ि  बय बृथहि अतीति। 2। 
राग-रोष-इरिषा-बिमोह-बस रूची न साधु-समीति। 
कहे न सुने गुनगुन रघुबर के, भइ न रामपद-प्रीति।3। 
हृदय दहत पछिताय-अनल अब , सुनत दुसह भवभीति । 
तुलसी प्रभु तें होइ सो कीजिय समुझि बिरदकी रीति।4।
	
	