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पद 231 से 240 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 5

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पद संख्या 239 तथा 240

(239)

जाको हरि दृढ़ करि अंग कर्यो।
सोइ सुसील, पुनीत , बेदबिद, बिद्या-गुननि भर्यो।1।

उतपति पांडु -सुतनकी करनी सुनि सतसंग डर्यो।
 ते त्रैलोक्य-पूज्य, पावन जस सुनि-सुनि लोक तर्यो।2।

जो निज धरम बेदबोधित सो करत न कछु बिसर्यो।
बिनु अवगुन कृकलास कूप मज्जित कर गहि उधर्यो।3।

 ब्रह्म बिसिख ब्रह्मांड दहन छम गर्भ न नृपति जर्यो।
अजर-अमर , कुलिसहुँ नाहिंन बध, सो पुनि फेन मर्यो।4।

बिप्र अजामिल अरू सुरपति तें कहा जोे नहिं बिगर्यो।
उनको कियो सहाय बहुत, उरको संताप हर्यो।5।

गनिका अरू कंदरपतें जगमहँ अघ न करत उबर्यो।
तिनको चरित पवित्र जानि हरि निज हृदि-भवन धर्यो।6।

केहि आचरन भलो मानैं प्रभु सो तौ न जानि पर्यो।
तुलसिदास रघुनाथ-कृपाको जोवत पंथ खर्यो।7।

(240)
 
सोच सुकृती , सुचि साँचो जाहि राम ! तुम रीझे।
 गनिका ,गीध,बधिक हरिपुर गये, लै कासी प्रयाग कब सीझे।1।

कबहुँ न डग्यो निगम-मगतें पग, नृग जग जानि जिते दुख पाये।
गजधौं कौन दिछित, जाके सुमिरत लै सुनाभ बाहन
तजि धाये।2।

सुर-मुनि-बिप्र बिहाय बड़े कुल, गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो।
बायों दियो बिभव कुरूपति को, भोजन जाइ बिदुर-घर कीन्हो।3।

 मानत भलहि भलो भगतनितें, कछुक रीति पारथहि जनाई।
 तुलसी सहज सनेह राम बस , और सबै जलकी चिकनाई।4।