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पद 231 से 240 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4

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पद संख्या 237 तथा 238

 (237)

काहे न रसना, रामहि गावहि?
 निसिदिन पर-अपवाद बृथा कत रटि-रटि राग बढ़ावहि।1।

नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि।
ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिक-जल कहँ धावहिं ।2।

काम-कथा कलि -कैरव -चंदिनि , सुनत श्रवन दै भावहि।
तिनहि तिनहिं हटकि कहि हरि-कल-कीरति, कनक कलंक नसावहि।3।

जातरूप-मति, जुगुति-रूचिर मनि रचि -रचि हार बनावहि।
 सरन-सुखद रबिकुल-सरो ज -रबि राम-नृपहि परिरावहि।4।

बाद-बिबाद, स्वाद तजि भजि हरि, सरस चरित चित लावहि।
तुलसिदास भव तरहि, तिहूँ पुर तू पुनीत जस पावहि।5।

(238)

आपनो हित रावरेसों जो पै सुझै।
तौ जनु तनुपर अछत सीस सुधि क्यों कबंध ज्यों जूझै।1।

 निज अवगुन, गुन राम! रावरे लखि -सुनि-मति-मन रूझै।
रहनि कहनि समुझनि तुलसीकी को कृपालु बिनु बूझै।2।