विनयावली / तुलसीदास / पद 241 से 250 तक / पृष्ठ 4
पद संख्या 247 तथा 248
(247)
राम जपु जीह! जनि, प्रीति सों प्रतीत मानि,
रामनाम जपे जैहै जियकी जरनि।
रामनामसों रहनि, रामनामकी कहनि,
कुटिल कलि- मल-सोक-संकट-हरनि।1।
रामनामको प्रभाउ पूजियत गनराउ,
कियो न दुराउ, कही आपनी करनि।
भव-सागरको सेतु, कासीहू सुगति हेतु,
जपत सादर संभु सहित घरनि।2।
बालमीकि-ब्याध हे अगाध -अपराध -निधि,
‘मरा’ ‘मरा’ जपे पूजे मुनि अमरनि।
रोक्यो बिंध्य , सोख्यो सिंधु घटजहुँ नाम-बल,
हार्यो हिय, खारो भयो भूसुर-डरनि।3।
नाम-महिमा अपार, सेष -सुक बार-बार
मति-अनुसार बुध बेदहू बरनि।
नामरति-कामधेनु तुलसीको कामतरू,
रामनाम है बिमोह-तिमिर -तरनि।4।
(248)
पाहि पाहि राम! पाहि रामभद्र रामचंद्र!
सुजस स्त्रवन सुनि आयो हौं सरन।
दीनबंधु! छीनता-दरिद्र-दाह-दोष-दुख,
दारून, दुसह दर-दुरित-हरन।1।
जब जब जग-जाल ब्याकुल करम काल,
सब खल भूप भये भूतल-भरन।
तब तब तनु धरि, भूमि -भार दूरि करि।
थापे मुनि , सुर, साधु, आस्त्रम , बरन।2।
बेद, लोक, सब साखी, काहूकी रति न राखी,
रावनकी बंदि लागे अमर मरन।
ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ ,
रामराज भयो धरम चारिहु चरन।3।
सिला, गुह,गीध, कपि, भील, भालु , रातिचर,
ख्याल ही कृपालु कीन्हें तारन-तरन।
पील-उद्धरन! सीलसिंधु! ढील देखियतु ,
तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन।4।