पद 251 से 260 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 1
पद संख्या 251 तथा 252
(251)
श्री राम! रावरो सुभाउ, गुन सील महिमा प्रभाउ,
जान्यो हर, हनुमान, लखन, भरत।
जिन्हके हिये-सुथरू राम-प्रेम-सुरतरू,
लसत सरस सुख फूलत फरत।।
आप माने स्वामी कै सखा सुभाइ भाइ,
पति, ते सनेेह-सावधान रहत डरत।
साहिब-सेवक-रीति, प्रीति-परिमिति,
नीति, नेमको निबाह एक टेक न टरत।।
सुक-सनकादि, प्रहलाद-नारदादि कहैं,
रामकी भगति बड़ी बिरति-निरत।
जाने बिनु भगति न, जानिबो तिहारे हाथ,
समुझि सयाने नाथ! पगनि परत। ।
छ-मत बिमत, न पुरान मत, एक मत,
नेति-नेति-नेति नित निगम करत।
औरनिकी कहा चली? एकै बात भलै भली,
राम-नाम लिये तुलसी हू से तरत।।
(252)
बाप! आपने करत मेरी घनी घटि गई ।
लालची लबारकी सुधारिये बारक, बलि,
रावरी भलाई सबहीकी भली भई।1।
रोगबस तनु, कुमनोरथ मलिन मनु,
पर-अपबाद मिथ्या-बाद बानी हई।
साधनकी ऐसी बिधि, साधन बिना न सिधि,
बिगरी बनावै कृपानिधानकी कृपा नई।2।
पतित-पावन , हित आरत-अनाथनिको,
निराधारको अधार, दीनबंधु, दई।
इन्हमें न एकौ भयो, बूझि न जूझ्यो न जयो,
ताहिते त्रिताप-तयो, लुनियत बई।3।
स्वाँग सूधो साधुको, कुचालि कलितें अधिक,
परलोक फीकी मति, लोक -रंग -रई।
बड़े कुसमाज रोज! आजुलौं जो पाये दिन,
महाराज! क्ेहू भाँति नाम-ओट लई।4।
राम! नामको प्रताप जानियत नीके आप,
मोको गति दुसरी न बिधि निरमई।
खीजिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु,
रीझिबे लायक तुलसीकी निलजई।5।